कौन थे प्रभु श्रीराम के सद्गुरु और कैसे उन्होंने प्रभु श्रीराम के जीवन के हरेक फैसले पर डाला था अपना प्रभाव? सद्गुरु की महिमा वेदों से लेकर आज तक चली आ रही है। स्वयं भगवान भी जब पृथ्वी पर अवतार लेते हैं तो उन्हें भी सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती है। चाहे वो श्रीराम के सद्गुरु विश्वामित्र जी रहे हों या फिर श्रीकृष्ण के गुरु सांदिपनी ऋषि रहे हों। और सबसे बड़ी बात ये कि स्वयं भगवान विष्णु के साक्षात अवतार होने के बावजूद श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों ने ही अपने गुरु के आदेशों का पालन अपने पूरे जीवन में किया और अपने सद्गुरु की शिक्षाओं का ही पालन किया ।
लेकिन आज हम अपनी कथा को प्रभु श्रीराम और उनके सद्गुरु पर ही केंद्रित रखते हैं और जल्द ही आपके लिए हम सनातन सद्गुरु चैनल पर श्रीकृष्ण और उनके सद्गुरु की कथा भी लेकर आएंगे।
वैसे तो प्रभु श्रीराम के कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ जी थे और उन्होंने ही श्रीराम के बचपन में शस्त्रों और शास्त्रों की शिक्षा दी थी लेकिन जब अयोध्या में विश्वामित्र जी का आगमन होता है तब श्रीराम के जीवन में उनके सद्गुरु का आगमन होता है। वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुसार जब श्रीराम की आय़ु 12 वर्ष के करीब थी तब एक दिन उनके पिता महाराज दशरथ जी की सभा में अचानक ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी का आगमन होता है । विश्वामित्र जी दशरथ जी से राक्षसों का वध करने के लिए श्रीराम को मांग लेते हैं। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद दशरथ जी श्रीराम को विश्वामित्र जी को सौंप देते हैं। श्रीराम के साथ लक्ष्मण जी भी विश्वामित्र के साथ चल पड़ते हैं।
आगे चल कर जब विश्वामित्र जी श्रीराम को ताटका नामक राक्षसी का वध करने के लिए कहते हैं तो श्रीराम ताटका का वध करने के लिए इस लिए हिचकिचा जाते हैं क्योंकि शास्त्रों के अनुसार स्त्री का वध करना अनुचित माना जाता है। तब विश्वामित्र जी श्रीराम को जीवन का ऐसा पाठ पढ़ाते हैं कि श्रीराम के जीवन का हर संशय दूर हो जाता है ।
नृशंस अनृशंसं वा प्रजारक्षण कारणात्।
पातकं वा सदोषं वा कर्तव्यं रक्षता सदा।
राज्यभार नियुक्ताना मेष धर्मः सनातनः।।
अर्थात – प्रजापालक राजा को प्रजा जनों की रक्षा के लिए क्रूरता पूर्ण या क्रूरता से रहित , पाप युक्त या दोष से युक्त कर्म भी करना पड़े तो कर लेना चाहिए। यह बात उसे सदा ध्यान में रखनी चाहिए, कि जिनके उपर राज्य के पालन का भार है, उनका तो ये सनातन धर्म है।
इस श्लोक में विश्वामित्र जी ने श्रीराम के जीवन में आने वाले हरेक स्थिति में उन्हें कैसे फैसले लेने हैं, इसके बारे में स्पष्ट आदेश दे दिया है। विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा कि प्रजा की रक्षा और उनकी खुशी के लिए एक राजा को बहुत कठिन फैसले लेने होते हैं। यहां तक कि क्रूरता के काम भी करने पड़ते हैं, और तो और अगर राजा को पाप भी करना पड़े तो प्रजा के हित के लिए पाप और गलत काम भी करने चाहिए। इस बात का राजा को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि उसके लिए प्रजा का हित और प्रजा की इच्छा ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, इतनी महत्वपूर्ण की उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर भी काम करना पड़े तो उसे करना चाहिए। यही राजा के लिए सदा से चला आ रहा धर्म है।
इसके बाद श्रीराम को विश्वामित्र ये भी बताते हैं कि ताटका राक्षसी के अंदर स्त्री का कोई गुण नहीं है और वो एक अत्याचारी राक्षसी है जिसने प्रजा जनों का वध किया है। इसलिए ताटका का वध करने में कोई पाप नहीं लगेगा। अपने सद्गुरु विश्वामित्र जी की बात सुन कर श्रीराम तुरंत ताटका और सुबाहु राक्षस का वध कर देते हैं। लेकिन अपने सद्गुरु की दी गई वो सीख हमेशा वो याद रखते हैं और वो सीख थी प्रजा के कल्याण के लिए या प्रजा की इच्छा के लिए उन्हें गलत काम भी करना पड़े तो वो करेंगे।
यही वजह थी कि जब सुग्रीव जो कि श्रीराम के इक्ष्वाकु वंश के शरण में आए थे, उनके लिए श्रीराम ने वालि का छिप कर वध किया। जब प्रजा को माँ सीता के चरित्र पर संदेह हुआ तब ये जानते हुए भी कि माँ सीता गंगा मैया की तरह पवित्र हैं। श्रीराम ने माँ सीता का त्याग कर दिया। श्रीराम ने अपनी खुशी से उपर प्रजा की खुशी को रखा, अपने कल्याण से उपर अपनी प्रजा के कल्याण की भावना को रखा। भले ही माँ सीता के त्याग और वालि का छिप कर वध करने की वजह से आज भी श्रीराम की कई लोग आलोचना कर देते हैं, लेकिन श्रीराम ने अपने सद्गुरु की शिक्षा के पालन को अपने जीवन का ध्येय माना और उन्होंने वही किया जिसकी शिक्षा उनके सद्गुरु विश्वामित्र जी ने दी थी।
जब श्रीराम अपने सद्गुरु की शिक्षाओं पर चल सकते हैं जबकि वो स्वयं भगवान हैं तब हमें भी तो अपने सद्गुरु की शिक्षाओं का पालन करना ही चाहिए।