क्या है मौत, क्यों इसके नाम से ही लोगों के पसीने छूट जाते हैं| क्या सच में बेहद दर्दनाक होती है मौत? कैसे मौत को मात दे सकते हैं दोस्तों जीवन मरण तो परमात्मा की देन हैं फिर भी हमको अपने इस भौतिक जीवन से बड़ा प्यार होता हैं। पूरी जिदंगी हम खूब पैसा धन-संपत्ति जमा करते हैं। पर जब हमको ये ध्यान आता कि एक दिन चुपके से मौत आयेगी और हमको सब कुछ छोड़कर जाना पडेगा, तब हमारे दिमाग में ये प्रश्न आता है कि क्या कोई ऐसा भी हैं या रहा होगा जिसने मौत को मात दी हो? तो हम आपको बता दें कि सनातन धर्मं में एक नहीं बल्कि अनेक व्यक्ति हुए जिन्होंनें मौंत को भी मात दी है। अगर आपके मन में भी ये प्रश्न है कि कैसे उन्होंने मौत पर विजय पाई? क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे मौत से बचा जा सकता हैं? आज हम आपको सनातन धर्मं में कुछ ऐसे ही लोगों के बारें में बताने जा रहें कि जिन्होंने मौत को भी मात दे दी।
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हनुमान जी से क्यों दूर रहती है मृत्यु
आप तो यही सोच रहें होगें की हनुमान जी जिनके पास इतनी शक्तियां हैं फिर उनको कौन मार सकता हैं। तो आप बिल्कुल सही सोच रहें हैं। पर हम आपको बता दें की हनुमान जी बचपन से इतने शक्तिशाली नही थे। पर उनको ये शक्तियां कहां, कैसे मिली इसके बारे में हमको जानकारी वाल्मीकि रामायण से मिलती हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब हनुमान जी बाल्यकाल मे सूर्यदेव को फल समझकर खाने को दौड़ें तो घबराकर देवराज इंद्र ने हनुमान जी पर वज्र का प्रहार किया था। तब हनुमान जी मूर्छित हो गए थे। ये देखकर वायुदेव क्रोधित हो गए और हनुमान जी को साथ लेकर एक गुफा में चले गए और पूरे संसार की वायु को रोक दिया, संसार में हाहाकार मच गया, तब परमपिता ब्रह्मा ने हनुमान जी को स्पर्श कर होश में ला दिया, उस समय सभी देवताओं के साथ साथ यमराज ने उनको मृत्यु पर विजयी होने का वरदान दिया था। इन वरदानों से ही हनुमानजी परम शक्तिशाली और मृत्यु के लिये अजेय बने।
श्रीराम की सेना को मिला जीवनदान
हम सभी को प्रभु श्रीराम और राक्षस रावण के युद्ध के बारे में पता ही होगा। लेकिन क्या आपको पता हैं कि रावण पर युद्ध में विजयी होने के बाद जब देवराज इंद्र प्रभु से कहते हैं कि आपने इस दुष्ट अत्याचारी से हमारी रक्षा की है । बदले में मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ। तब प्रभु श्रीराम देवराज से कहते हैं मेरे और रावण के युद्ध में मेरी जितनी भी वानर सेना वीरगति को प्राप्त हो गई हैं। उन सभी को जीवित कर दीजिए। तब देवराज इंद्र मृत वानर सैनिकों को जीवनदान देते हैं।
गणेश जी के जीवनदान का रहस्य
गणेशजी को जीवनदान मिलने का कई पुराणों में वर्णन मिलता हैं। शिव पुराण के अनुसार एक बार मां पार्वती स्नान के लिए जा रही थीं। उस समय सेविकाएं उनके पास नहीं थीं तब उन्होंने हल्दी की एक बालक मूर्ति बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए माता पार्वती ने अपने उस पुत्र गणेश को यह आदेश दिया कि किसी को भी भीतर ना आने देना। गणेश अपनी माता की आज्ञा का पालन कर रहे थे कि अचानक शिव जी वहां आ गए। पार्वती के कहे अनुसार गणपति जी भगवान शिव को भी भीतर जाने से रोक दिया, जिस पर शिव क्रोधित हो उठे, क्रोध में आकर उन्होंने गणपति का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया। जब पार्वती स्नान कर के बाहर आईं तो अपने पुत्र का मृत देह देखकर उन्होने बहुत ही भयंकर रुप को धारण कर लिया… जिसको देखकर सभी देवताओं सहित भगवान शिव भी सहम गए और माता के क्रोध से बचने के लियें भगवान शिव ने एक गज का सिर गणेश जी के धड़ के साथ जोड़कर उन्हें पुनर्जीवित करके जीवनदान दिया।
कैसे मिला दक्ष को जीवन दान
पुराणों के अनुसार जब माता सती के पिता दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें उन्होंने अपनी पुत्री और भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया था। माता सती को जब ये बात पता चली की सभी देवता जा रहें हैं तब वो भगवान शिव के रोकने के बावजूद वहां पर गई। यज्ञ स्थल पहुंचकर उन्होनें देखा कि भगवान शिव का कोई स्थान ही नही हैं। और बिना बुलाये जाने पर प्रजापति दक्ष ने भी उनका खूब अपमान किया। जिसके कारण माता सती ने यज्ञ में कूदकर वही आत्मदाह कर लिया। जब ये बात भगवान शिव को पता चली तो वो यज्ञ स्थल आकर सब कुछ नष्ट कर देते हैं। और दक्ष का सिर काटकर वध कर देते हैं। काफी समय बाद देवों की स्तुति के कारण बाबा भोलेनाथ का क्रोध शांत हुआ, तब उनके पास ब्रह्मा जी पधारे. ब्रह्मा जी ने फिर अपने पुत्र दक्ष के प्राणों की भीख मांगी, तब भोलेनाथ ने दक्ष के सर की जगह एक बकरे का सर लगा दिया और प्रजापति दक्ष को जीवन दान दिया।
जरासन्ध ने कैसे दी मौत को मात
राजा बृहद्रथ मगध के सम्राट थे पर उनके कोई संतान नही थी जिसके कारण एक दिन वो ऋषि चण्डकौशिक के पास गए और अपनी समस्या बताई। तब ऋषि ने उनको एक फल दिया और कहा कि अपनी पत्नियों को खिला देना। पुत्र प्राप्ति की कामना को पूर्ण होता देख राजा ये पूंछना भूल गयें कि फल काटकर देना हैं या एक ही पत्नी को खिलाना हैं। राजा ने फल को काटकर दोनों पत्नियों को खिला दिया। लेकिन जब गर्भ से शिशु निकला तो वह आधा-आधा था अर्थात आधा पहली रानी के गर्भ से और आधा दूसरी रानी के गर्भ से। दोनों रानियों ने घबराकर उस शिशु के दोनों जीवित टुकड़े को बाहर फिंकवा दिया। तभी वहां से एक राक्षसी का गुजरी। जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तो उसने अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक होते ही वह शिशु दहाड़े मार-मारकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर राजा बृहद्रथ भी वहां आ गए और उन्होंने वहां खड़ी उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। उस राक्षसी का नाम जरा था। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया, क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने जोड़कर जीवनदान दिया था।
कौरव सेना को मिला जीवनदान
महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद एक बार फिर से सभी योद्धा जीवित हो गये थे। ऐसा किया था वेदों की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास ने। महाभारत के अनुसार जब युद्ध होने के कुछ वर्ष बीत जाते हैं। तब धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती ये सभी लोग महल को छोडकर वन में चले जाते हैं। वहां पर वो वेदव्यास जी निवेदन करते है कि एक बार हम अपने मरे हुए सभी बन्धु बान्धवों से मिलना चाहते हैं। तब महर्षि वेदव्यास जी उनके शोक को दूर करने के लिये मात्र एक रात के लियें युद्ध मांरे गयें सभी लोगों को जीवित कर दिया। पूरी रात सब एक दूसरे के साथ रहते हैं। उसके बाद सुबह होने से पहले वो सभी वापस चले जातें हैं। तो महर्षि वेदव्यास के तपोबल के कारण मरने के बाद भी वो सभी फिर से जीवन को प्राप्त करते हैं।
पाण्डवों को मिला जीवनदान
महाभारत में पाण्डव जब अज्ञातवास में तो थे तो एक बार सब को बहुत जोर की प्यास लगी। पानी लाने की जिम्मेदारी सबसे पहले सहदेव को दी गई। सहदेव पास एक सरोवर में पानी लेने गये। उस सरोवर की सुरक्षा एक यक्ष कर रहा था। यक्ष ने पानी पीने से पहले उनसे कुछ प्रश्न किया जिसका उत्तर सहदेव ने देना उचित नहीं समझा। फलस्वरुप वो उस सरोवर का पानी पीते ही मृत्यु को प्राप्त हो गयें। ऐसे ही नकुल, भीम, अर्जुन ने भी किया और उनकी भी सहदेव की तरह ही मृत्यु हो गई। पर जब युधिष्ठिर वहां गयें तो अपने भाईयों की ये हालत देखी। तब यक्ष ने उनसे भी वही सवाल पूछा- तब धर्मराज ने उस यक्ष के सभी सवालों के उत्तर दिये। फिर उस यक्ष ने सभी पाण्डवों को जीवनदान दिया था।
अर्जुन को मिला जीवनदान
महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद पांडवों ने अश्वमेध किया किया। यज्ञ के घोड़े की सुरक्षा जिम्मेदारी अर्जुन को दी गई। यज्ञ का घोड़ा घूमते-घूमते मणिपुर पहुंच गया। वहां का राजा बभ्रुवाहन था जो अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का पुत्र था। अर्जुन ने बभ्रुवाहन से कहा कि – मैं इस समय यज्ञ के घोड़े की रक्षा करता हुआ तुम्हारे राज्य में आया हूं। इसलिए तुम मुझसे युद्ध करो। अर्जुन और बभ्रुवाहन में भयंकर युद्ध होने लगा। युद्ध में बभ्रुवाहन ने अर्जुन का वध कर दिया। अर्जुन की मृत्यु से दुखी होकर चित्रांगदा और बभ्रुवाहन दोनों ही आमरण उपवास पर बैठ गए। तब नागकन्या उलूपी ने संजीवनी मणि बभ्रुवाहन को देकर कहा कि – यह मणि अपने पिता अर्जुन की छाती पर रख दो। बभ्रुवाहन ने ऐसा ही किया। वह मणि छाती पर रखते ही अर्जुन जीवित हो उठे।
सत्यवान को कैसे मिला जीवनदान
सावित्री राजर्षि अश्वपति की एकमात्र कन्या थी। अपने वर की खोज में उन्होनें राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् को पतिरूप में स्वीकार किया। देवर्षि नारद ने उनसे कहा कि सत्यवान की आयु केवल एक वर्ष ही शेष है। फिर भी सावित्री सत्यवान से ही विवाह करके राजमहल छोडकर जंगल की कुटिया में रहने लगी। एक दिन जब सत्यवान् कुल्हाड़ी उठाकर जंगल की तरफ लकडियाँ काटने चले। सावित्री भी पति के साथ वन चली गई। सत्यवान लकडियाँ काटने वृक्षपर चढे, परन्तु तुरंत ही उन्हें चक्कर आने लगा और वे कुल्हाडी फेंककर नीचे उतर आये। पति का सिर अपनी गोद में रखकर सावित्री उन्हें अपने आंचल से हवा करने लगी। थोड़ी ही देर में यमराज आया और सत्यवान के प्राणों को लेकर जाने लगें। तब सती भी अपने तेज बल के कारण यमराज के पीछें पीछे चलने लगीं।
धर्मराज ने बहुत मना किया। सावित्री ने कहा – जहाँ मेरे पतिदेव जाते हैं वहाँ मुझे जाना ही चाहिये। उसके पातिव्रतधर्म से प्रसन्न होकर यमराज ने एक-एक करके वररूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिये और सावित्री को लौट जाने को कहा। पर सवित्री नहीं मानती हैं। यमराज ने फिर कहा कि सत्यवान को छोड़कर चाहे जो माँग लो, सावित्री ने कहा-यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे सत्यवान से सौ पुत्र प्रदान करें। यम ने बिना ही सोचे प्रसन्न मन से तथास्तु कह दिया। वचनबद्ध यमराज आगे बढे। सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप लिये जा रहे हैं और मुझे सौ पुत्रों का वर दिये जा रहे हैं। यह कैसे सम्भव है? वचनबद्ध यमराज ने सत्यवान् के सूक्ष्म शरीर को पाशमुक्त करके सावित्री को लौटा दिया और सत्यवान को चार सौ वर्ष की नवीन आयु प्रदान की।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु पुत्र को दिलाई मुक्ति
भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के गुरु महर्षि संदीपनि थे। गुरु संदीपनि का आश्रम मध्य प्रदेश के उज्जैन में आज भी स्थित है। शिक्षा पूरी होने के बाद जब गुरु दक्षिणा की बात आई तो ऋषि संदीपनि ने कहा कि शंखासुर नाम का एक दैत्य मेरे पुत्र को उठाकर ले गया है। उसे ले लाओ। यही गुरु दक्षिणा होगी। श्रीकृष्ण ने गुरु पुत्र को खोजकर वापस लाने का वचन दे दिया। श्रीकृष्ण और बलराम समुद्र तक पहुंचे तो समुद्र ने बताया कि पंचज जाति का दैत्य शंख के रूप में समुद्र में छिपा है। संभव है कि उसी ने आपके गुरु के पुत्र को खाया है। भगवान श्रीकृष्ण शंखासुर को मारकर उसके पेट में गुरु पुत्र को खोजा, लेकिन वह नहीं मिला। तब श्रीकृष्ण शंखासुर के शरीर का शंख लेकर यमलोक पहुंच गए और यमराज से गुरु पुत्र को वापस लेकर गुरु संदीपनि को लौटा कर गुरुदक्षिणा दी।