जम्मू कश्मीर की राजधानी श्री नगर से करीब 57 किलोमीटर दूर अनंतनाग में एक गुफा है जो जमीन से लगभग 3888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. इस गुफा की प्रसिद्धि उसकी तीर्थ यात्रा को लेकर है. जिसे अमरनाथ तीर्थ यात्रा कहा जाता है. ये वही यात्रा है जहां लाखों श्रद्धालु बाबा अमरनाथ के दर्शन करने के लिए जाते हैं और इसे अमरनाथ गुफा के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है इस गुफा की खोज एक मुस्लिम गड़ेरिए ने की थी. जो शायद गलत है ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि क्योंकि मुस्लिम गड़ेरिए द्वारा अमरनाथ गुफा की खोज का कोई लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है.
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क्या है बूटा नाम के मुस्लिम गड़ेरिए की कहानी ?
हम यहां अमरनाथ यात्रा में गंगा जमुनी तहजीब पर कोई सवाल खड़ा नहीं करना चाहते लेकिन इस यात्रा को लेकर आपके एक कहानी सुनाते हैं. यह कहानी बूटा नाम के एक मुस्लिम गड़ेरिए से जुड़ी हुई है… जिसको लेकर यह तर्क दिया जाता है कि इसी मुस्लिम गड़ेरिए ने अमरनाथ गुफा की खोज की थी- कहा जाता है कि, सन् 1850 में बूटा मलिक नामक एक मुस्लिम गड़रिया एक दिन अपनी भेड़ को चराते-चराते बहुत दूर निकल गया. एक ऊंचे पहाड़ पर उसकी भेंट एक साधु से हुई जो बूटा के विनम्र और दयालु स्वभाव से काफी प्रभावित हुए और उस साधु ने बूटा को एक कोयले से भरा पात्र दिया. बूटा ने जब घर आकर उस कांगड़ी को देखा तो उस पात्र में कोयले की जगह सोना भरा हुआ था. बूटा ये देखकर बेहद खुश हुआ और उस साधु को धन्यवाद कहने के लिए उस ऊंचे पर्वत पर गया, जहां उसे साधू मिले थे. हालांकि जब बूटा वहां पहुंचा तो वहां साधू तो नहीं थे लेकिन एक गुफा जरूर थी. जिसके अंदर बूटा ने बर्फ से बनी शिवलिंग देखी जो दूर से ही चमक रही थी. इस अद्भुत शिवलिंग को देखते ही उसका मन शांत हो गया. इसके बाद वो अपने गाव गया और इस गुफा के बारे में बताई. तभी से ऐसा कहा जाता है कि इस घटना के तीन साल बाद पहली अमरनाथ यात्रा शुरू हुई. माना जाता है कि बूटा के वंशज आज भी इस गुफा की देखरेख करते हैं. हालांकि यह सत्य नहीं है क्योंकि 19वीं शताब्दी के किसी भी ऐतिहासिक दस्तावेज में इस तरह की बातों का उल्लेख नहीं मिलता है. इस कहानी को सांप्रदायिक सौहार्द के लिए भले ही हमारे समाज में सुनाई जाती हो लेकिन इसकी सत्यता पर आज भी तमाम तरह के सवाल खड़े होते हैं. क्योंकि जिस बूटा ने अमरनाथ गुफा की खोज 1850 ईस्वी में की थी… उससे कई सौ साल पहले बाबा अमरनाथ मौजूद है जिसका प्रमाण हमारे इतिहास के पन्नों में देखने को मिलता है.
मुस्लिम गड़ेरिए से पहले औरंगजेब ने की थी अमरनाथ की यात्रा
ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर जिसे फ्रांसीसी यात्री फ्रैंकोइस बर्नियर ने लिखा है. उसके मुताबिक- साल 1663 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने कश्मीर की यात्रा की थी. औरंगजेब के साथ उस वक्त खुद बर्नियर भी मौजूद थे. किताब की पेज संख्या 419 पर बर्नियर इस यात्रा का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि, हम लोग एक प्राकृतिक गुफा में गए जहां बर्फ जमी हुई थी. यह बर्फ सफेद कठोर चादरों के रूप में थी, जिसकी आकृति अपने आप में अलग दिखाई दे रही थी. इस बात का प्रमाण तब और पुख्ता हो जाता है जब बर्नियर की इसी किताब को आयरलैंड के इतिहासकार विनसेंट ऑर्थर स्मिथ ने अनुवाद किया और बताया कि, बर्नियर ने औरंगजेब के साथ जिस गुफा की यात्रा की थी वो अमरनाथ गुफा ही थी. विनसेंट आगे लिखते हैं कि. बर्फ से ढकी उस गुफा में जहां टपकते पानी से बर्फ की एक आकृति बनती है, उस आकृति को हिंदू श्रद्धालु भगवान शिव मानकर पूजा करते हैं.
बर्नियर से लेकर विनसेंट की रिसर्च ये साबित करती है कि मुस्लिम गड़ेरिए की कहानी किसी कहावत मात्र से कम नहीं है जिसका लिखित प्रमाण आज भी उपलब्ध नहीं है.
अमरनाथ गुफा को लेकर कल्हण ने क्या लिखा ?
सन् 1148 के दौरान कश्मीर के प्रसिद्ध कवियों में शामिल कल्हण की रचना राजतरंगिणी लिखी गई… इस रचना में अमरेश्वर यानी अमरनाथ गुफा की बखूबी से उल्लेख किया गया है. इस रचना के मुताबिक 11वीं सदी में रानी सूर्यमति ने अमरनाथ में त्रिशुल और दूसरे धार्मिक प्रतीक चिन्ह लगवाएं. रानी के द्वारा यह प्रतीक चिन्ह इसलिए लगवाए गए क्योंकि उस दौरान धर्म को मानने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा चल रही थी. राजतरंगिणी की प्रथम तरंग के 267वें श्लोक की माने तो- 34 ईसा पूर्व में कश्मीर के राजा सामदीमत शिव के भक्त थे और वे पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा- करने जाया करते थे. इसी ग्रंथ में कवि कल्हण भगवान शिव के अमरनाथ स्वरूप को अमरेश्वर के नाम से संबोधित करते हैं, जो यह बतलाता है कि, बाबा अमरनाथ की गुफा आज से करीब 800 साल पहले से मौजूद है.
छठवीं सदी में रचे गए नीलमत पुराण में भी अमरनाथ यात्रा के बारे में स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया है. जिसमें कश्मीर के इतिहास, भूगोल, लोककथाओं और धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन मिलता है. जो यह बतलाता है कि छठी शताब्दी में लोग अमरनाथ यात्रा किया करते थे.
अमरनाथ गुफा को लेकर क्या कहता है पुराण ?
स्कंद पुराण की माने तो- अमरेश तीर्थ को सब पुरुषार्थों का साधक बताया गया है, वहां ओंकार नाम वाले महादेव और चंडिका नाम से पार्वती जी निवास करती हैं… ऐसी मान्यता है कि जब भगवान शिव ने देवी पार्वती को अमर कथा सुनाने का निश्चय किया, तब उन्होंने अपने समस्त गणों को पीछे छोड़ दिया और अमरनाथ की गुफा की ओर बढ़ते गए.
अमरनाथ गुफा में आज भी क्यों रहते हैं दो सफेद कबूतर ?
पुराणों की माने तो- जिस स्थान पर अमरेश्वर ने अमर कथा सुनाई, वो स्थान काफी सुनसान था. दरअसल, शिव जी मां पार्वती को अपने अमर होने की कथा एक ऐसी जगह पर सुनाना चाहते थे. जहां कोई ना हो और न ही इस कथा को कोई सुन सकें, क्योंकि यदि कोई सुन लेता तो वो भी अमर हो जाता. इसके लिए भगवान शिव ने अमरनाथ की इस गुफा को चुना. जहां मां पार्वती जी कथा सुनते सुनते सो गई. लेकिन उस गुफा में दो सफेद कबूतर भी थे जिन्होंने भगवान शिव के द्वारा सुनाई गई कथा को सुन लिया और इस तरह से दोनों कबूतरों का जोड़ा अमर हो गया. ऐसी मान्यता है कि, जब भी कोई भक्त अमरनाथ गुफा में जाता है, तो उन्हें उन दोनों कबूतरों के दर्शन भी होते हैं. जो आज भी भगवान शिव के अमरत्व की कथा के प्रतीक है और इसका उल्लेख हमें पांचवीं शताब्दी में रचित लिंग पुराण के 12वें अध्याय में पढ़ने को मिल जाता है…
महर्षि भृगु को कैसे हुआ था बाबा बर्फानी का दर्शन ?
अमरनाथ को लेकर महर्षि भृगु से जुड़ी एक बेहद प्रसिद्ध कहानी भी सुनाई जाती है. जिसके अनुसार एक बार कश्मीर की घाटी जलमग्न हो गई और एक बड़ी झील का रूप ले ली. इस बड़ी झील से संसार में विनाश का खतरा मंडराने लगा, तभी ऋषि कश्यप ने इस जल को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जल स्त्रोतों के द्वारा बहा दिया. उसी समय भृगु ऋषि पवित्र हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे और सबसे पहले उन्होंने अमरनाथ की पवित्र गुफा और बर्फानी शिवलिंग को देखा. तभी से माना जाता है कि यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देव स्थान बन गया और अनगिनत तीर्थयात्री भगवान शिव के अद्भुत स्वरूप के दर्शन के लिए एक कठिन यात्रा भी करते हैं.