September 22, 2024

विवेकानन्द जी के जीवन की एक महत्वपूर्ण कथा

सनातन धर्म में ये बार बार कहा गया है कि माँ हमारी सबसे पहली गुरु होती हैं। माँ हमारे जीवन का आधार होती है। सनातन धर्म के अनुसार शंकराचार्य अपने मत में सबसे उंचे पद पर बैठे होने के बावजूद अपनी माँ के चरणों में शीश नवाते हैं। माँ ही हमें इस शरीर को प्रदान कर ईश्वर प्राप्ति के योग्य बनाती है। इसलिए बड़े बड़े संतों  ने भी अपनी माताओं को हमेशा ईश्वर के बराबर स्थान दिया है चाहे वो जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जी हों जो अपनी माँ के बुलावे पर उनकी आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए दौड़े चले आए थे या फिर विवेकानंद जी जो मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करने के बावजूद अपनी माँ  के लिए एक जमीन  पर धूल में लोटने लगे थे।

जीवन के संघर्ष और आपत्तियों से जूझना

विवेकानंद जी का जीवन हमेशा से संघर्षों से भरा हुआ था। उनके पिता बहुत कम आयु में ही उन्हें छोड़ कर इस संसार से चले गए थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद विवेकानंद जी के उपर ही अपने भाई और अपनी मां की सेवा और रखरखाव का भार आ चुका था। लेकिन  विवेकानंद जी का मन तो अपने गुरु श्रीराम कृष्ण परमहंस जी के सेवा और ज्ञान की प्राप्ति में लगा रहता था। वो अपने युवा काल में ही संन्यास लेना चाहते थे लेकिन हमेशा उन्हें अपनी मां का ख्याल आ जाता था इस वजह से वो संन्यास नहीं ले पाते थे। एक दिन  उनकी गरीबी और दुख को देख कर उनके गुरु श्रीराम कृष्ण परमहंस ने उनसे माँ काली के सामने जा कर प्रार्थना करने की सलाह दी ताकि माँ काली उनकी गरीबी को दूर कर सकें। तो  विवेकानंद जी माँ काली के पास जाकर भी अपनी गरीबी दूर करने का वरदान नहीं मांग पाए। तब आखिर में  श्रीराम कृष्ण परमहंस ने उन्हें अपनी माँ की चिंता को दूर करने का आश्वासन दिया और इसके बाद विवेकानंद जी ने संन्यास ले लिया।

संसार में ख्याति तथा शारीरिक क्षति

जब विवेकानंद जी बहुत प्रसिद्ध हो गए और पूरी दुनिया में उनकी ख्याति फैल चुकी थी तब भी वो अपनी माँ के पास हमेशा मिलने जाते रहते थे। एक बार विवेकानंद जी बहुत जोर से बीमार पड़ गए और डाक्टरों ने उनसे कहा कि उनके बचने की संभावना बहुत कम है । वैसे भी विवेकानंद जी को अस्थामा और डायबटीज दोनों ही बिमारियाँ थीं।

स्वामी जी की बिमारी दूर करने के लिए माँ काली से विनती 

स्वामी जी के बीमार पड़ने की खबर जब उनकी माँ को लगी तो वो उनसे मिलने के लिए आईँ और उन्होंने  विवेकानंद जी को उनके बचपन की एक कहानी सुनाई। माँ ने बताया कि जब वो छोटे थे तब एक बार इसी प्रकार बहुत जोर से बीमार पड़े थे। तब उनकी माँ ने कालीघाट स्थित माँ काली से प्रार्थना की थी कि अगर उनके बेटा नरेंद्र ठीक हो जाएगा तो वो अपने बेटे को मंदिर के धूल में तीन बार लोट पोट कराएंगी। विवेकानंद जी की माँ की ये प्रार्थना माँ काली ने सुन भी ली । लेकिन उनकी माँ ये करवाना भूल गईं थी। विवेकानंद जी की माँ को लगने लगा कि शायद माँ  काली उनकी इस प्रतिज्ञा को पूरा न करने  की वजह से नाराज़ हो गईँ हैं इसलिए उनका बेटा नरेंद्र फिर से बीमार हो  गया है ।

स्वामी विवेकानंद जी ऐसे कार्यों  का हमेशा विरोध करते थे और इसे वो एक अँधविश्वास मानते थे, लेकिन अब जब उनकी माँ ने ऐसा कहा तो वो अपनी माँ की इच्छा को टाल नहीं सके औऱ अपनी माँ के साथ कोलकाता के कालीघाट पहुंचे और एक बच्चे की तरह वहाँ की पवित्र भूमि पर तीन बार लोट पोट हुए। माँ की इच्छा पूरी करने के बाद विवेकानंद जी लौट गए।

माँ के प्यार में विचार द्वारा से दूर हुए स्वामी जी 

जब उनके शिष्यो ने उनसे ये पूछा कि वो तो हमेशा ऐसी चीजों  को अंधविश्वास मानते हैं और हमेशा इसका विरोध करते थे तो आखिर ऐसा क्या हो गया कि वो कालीघाट के माँ काली के मंदिर में जाकर एक बच्चे की तरह लोट पोट हुए। शिष्यों  के ऐसा पूछने पर विवेकानंद जी ने कहा कि इन चीजों को अँधविश्वास मानना मेरा सिद्धांत है लेकिन मेरी माँ के लिए ये एक प्रकार की पूजा है और अगर मैं ऐसा नहीं करता इससे मेरी माँ के विश्वासों को धक्का लगता । विवेकानंद जी ने कहा कि सनातन धर्म अपनी माँ को पहला गुरु बताता है ऐसे में माँ के विश्वासों को पूरा न करना उनके लिए भी संभव नहीं  था। विवेकानंद जी ने आगे कहा कि अपनी माँ के लिए ही उन्होंने ऐसा किया भले ही उन्हें ये बातें अँधविश्वास लगती थीं माँ की इच्छाओं का सम्मान करना सनातन धर्म का एक मूल तत्व है। सिर्फ हिंदू धर्म ही नहीं सभी धर्मों में माँ का स्थान बहुत उंचा बताया गया है।

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