महान संत, समाज सुधारक तथा जीवन का असली मोल समझाने वाले संत कबीर दास के जीवन के बारे में किसी के पास पुक्ता जानकारी तो नहीं है लेकिन जो भी समयानुसार प्राप्त हुआ है वहीं आधुनिक समाज में प्रचलित है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि कबीरदास का जन्म सन 1398 में वाराणसी में हुआ था और मृत्यु 1494 में मगहर हुई थी।
संत कबीर के जन्म के बार में दो तरह कथाएं प्रचलित हैं, एक के अनुसार कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब पर खिले एक कमल के फूल पर हुआ और दूसरी के अनुसार इनका जन्म एक ब्राह्मण विधवा के गर्भ से हुआ था, जिसको समाज का भय था कि अगर मेरी गोद में बच्चा खेलेगा तो समाज मुझे कभी नहीं अपनाएगा और इसी भय ने उसे अपने बालक को त्यागने पर मजबूर कर दिया और एक मुस्लिम कपड़े बुनने वाले पति-पत्नि ने उन्हें गोद लिया और पाल पोषकर बड़ा किया।
गुरु स्वामी रामानन्द जी से मुलाकात
कबीर के गुरु स्वामी रामानंद थे, जो एक हिंदू संत थे। कहा जाता है कि एक दिन, कबीर रामानंद के साथ पंचगंगा घाट पर स्नान करने गए थे। रामानंद सीढ़ियां उतर रहे थे, तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। कबीर के मुख से तुरंत “राम-राम” शब्द निकल आया। रामानंद ने इस घटना को एक संकेत माना और कबीर को अपना शिष्य बना लिया। कबीर के जन्मस्थान के बारे में तीन प्रमुख किंवदंतियाँ कही जाती हैं, मगहर, काशी और आजमगढ़ के बेलहरा गाँव में अलग-अलग कथाएं प्रचलित हैं।
काशी – काशी मत के समर्थकों का कहना है कि कबीर का अधिकांश जीवन काशी में ही व्यतीत हुआ है। और उन्हें काशी के जुलाहे के रूप में ही जाना जाता है। कई बार कबीरपंथियों का भी यही विश्वास है कि कबीर का जन्म काशी में हुआ। लेकिन कोई प्रमाण न होने के कारण इस मत की पुष्टि नहीं हो पाती है।
बेलहरा – आजमगढ़ ज़िले के बेलहरा गाँव को कबीर का जन्मस्थान माना जाता है। यहाँ के लोग कहते हैं कि “बेलहरा” गाँव का ही नाम बदलकर “लहरतारा” कर दिया गया फिर भी पता लगाने पर न तो बेलहरा गाँव का ठीक पता चला पाया है और न ही यह मालूम हो पाया है कि “बेलहरा” का “लहरतारा” कैसे बन गया और वह आजमगढ़ ज़िले से काशी के पास कैसे आ गया? वैसे, आजमगढ़ ज़िले में कबीर, उनके पंथ या अनुयायियों का कोई स्मारक नहीं है।
मगहर – यहां के मत के अनुसार कबीर ने अपनी रचनाओं में मगहर का उल्लेख किया है। उन्होंने कहा है: “पहिले दरसन मगहर पायो, पुनि कासी बसे आई।” अर्थात्, उन्होंने पहले मगहर देखा, फिर काशी में बस गए। मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही है और वहाँ कबीर का मक़बरा भी है।
कबीर कैसे बने संत कबीर
एक कहानी आती है कि एक दिन कबीर की माता उनसे बहुत नाराज हो गईं और अपने बेटे कबीर को घर से बाहर निकाल दिया। उसी दिन से कबीर ने अपना घर छोड़ दिया और भक्ति मार्ग पर चल पड़े। कबीर की भक्ति और संत-संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट होता था। वह चाहती थीं कि कबीर एक सामान्य जीवन जिएं और अपने परिवार का पालन-पोषण करें। लेकिन कबीर ने भक्ति के मार्ग को चुना और अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध चले गए।
साहित्य और भक्ति के समागम में संत कबीर
संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के एक महान कवि और समाज सुधारक थे। वे एक निर्गुण परंपरा के संत थे। उनके विचारों और रचनाओं के कारण उस समय के लोगों को नई उर्जा मिली थी। कबीरदास ने अपने समय के समाज में चल रहे हर तरह के आडंबरों और कुरीतियों का विरोध किया, उन्होंने जात-पात, धर्म-अधर्म, ऊँच-नीच, पाखंड और अंधविश्वास पर जमकर प्रहार किया, उन्होंने अपने दोहों और साखियों के माध्यम से लोगों को एकता और भाईचारे का संदेश दिया। कबीरदास एक कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे। वे मानते थे कि मनुष्य को अपने कर्मों के आधार पर ही न्याय मिलना चाहिए।
संत कबीर की अंतिम यात्रा और उनकी समाज में विशेष पहचान
संत कबीर के मृत्यु की भी अति प्रसिद्ध कथा है कहा जाता है कि मगहर गाँव में जिसकी मृत्य होती है वह नर्क में ही जाता है। इसलिए कोई उस गाँव में अपनी आखिरी साँस लेना नहीं चाहता था, शरीर त्याग के समय भी कबीरदास ने इस अँधविस्वास को भी मिटाने का भरपूर प्रयास किया और मगहर में उन्होने शरीर त्याग किया।
कबीर दास की मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर हिंदू और मुस्लिम समुदायों में विवाद हो गया। हिंदू चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू परंपरा से किया जाना चाहिए, जबकि मुस्लिम चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार मुस्लिम रीति से करना चाहिए। बात इतनी बढ़ गई कि आखिर में कबीरदास के शव को चादर से ढंक दिया गया। जब चादर हटाई गई, तो सभी हैरान रह गए क्योंकि उसमें शव नहीं बल्कि पुष्प थे। हिंदू और मुस्लिम दोनों ही इस चमत्कार से खुश हो गए। हिंदुओं ने फूलों के आधे हिस्से को ले लिया और मुस्लिमों ने आधे हिस्से को ले लिया हिंदुओं ने फूलों का अंतिम संस्कार हिंदू रीति से किया, जबकि मुस्लिमों ने फूलों का अंतिम संस्कार मुस्लिम रीति से कर दिया।